आम बोल चाल वाली ज़बान
बहुत से हिंदी के और उर्दू के प्रोग्रामों में जा चुका हूं.. लेकिन जहां भारी भरकम अल्फ़ाज़ इस्तेमाल होते हैं...उर्दू में या हिंदी में ...वहां टिक नहीं पाता ... थोड़े ही समय में बाहर आ जाता हूं.. एक बात तो है... किसी भी ज़बान को अच्छे से बोलने-लिखने वाले जितने भी लोग हैं सब लोग रोज़मर्रा की ज़बान की बात तो करते हैं लेकिन पता नहीं क्यों बड़ी बड़ी महफ़िलों में कईं बार इतने भारी-भरकम शब्द कहां से ले आते हैं... हर महफ़िल की एक ऑडिएंस होती है ... पता नहीं क्यों कुछ वक्ता तो जैसे श्रोताओं के सब्र का इम्तिहान सा लेने लगते हैं.. किसी भी ज़बान को इस्तेमाल करते वक्त बहुत मुश्किल शब्दों का इस्तेमाल करने में कुछ गलती नहीं है..लेकिन ये मुश्किल ज़बान कहां बोली जा रही है, यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है। कहीं सेमीनार हो रहा है, रिसर्च स्कॉलर मिल रहे हैं...वहां कलिष्ठ (यही कहते हैं न) हिंदी बोलिए...मुश्किल वाली उर्दू भी बोलिए..लेकिन आम लोगों के जमावड़े के सामने क्या हम अपनी ज़बान को रोज़मर्रा वाली नहीं रख सकते... हिंदी के प्रोग्रामों में जाएं तो वहां पर कईं लोग भाषण करते वक्त इतने इतने मुश्किल अल्फ़ाज़ ...