प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में हुआ तलफ़्फ़ुज़ टीम का ख़ैरमक़्दम
पिछले सोमवार को तलफ़्फ़ुज टीम का प्रेस क्लब ऑफ इंडिया (पी.सी.आई) में ख़ैरमक़्दम हुआ...उस दिन 16 दिसंबर को वहां पर तलफ़्फ़ुज़ और मीडिया वर्कशाप का आयोजन हुआ...ढ़ाई-तीन घंटे के लिए समां बंध गया हो जैसे...
संयोगवश प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के नये अध्यक्ष श्रीमान अनंत राव ने एक दिन पहले ही अपना कार्यभार संभाला था...पूरी वर्कशाप में उन की शिरकत ने टीम को प्रोत्साहित किया.. पी सी आई के महासचिव श्रीकांत भाटिया भी वर्कशाप में पूरी सक्रियता से शामिल हुए।
कार्यक्रम की शुरूआत में अनंत जी को तलहा सोसाइटी की तरफ़ से एक हरा-भरा पौधा भेंट किया गया और उन्होंने फ़रमाया कि वे इस पौधे को कभी भी सूखने नहीं देंगे और इस मुहिम को आगे बढ़ाएंगे।
डा साबरा हबीब साहिबा ने तलफ़्फ़ुज़ की टीम के बारे में बताया, इस के जज़्बे की बात की - उर्दू के जाने-मान उस्ताद मो. क़मर ख़ान के बारे में कहा कि यह डा क़मर हैं ...क्योंकि ये उर्दू के बीमारों को ठीक करते हैं...जो तलफ़्फ़ुज़ के बीमार हैं उन का भी ये इलाज करते हैं।
डा साबरा ने कहा कि वह कुलसुम तलहा (तलहा सोसाइटी की सरपरस्त) की मशकूर और ममनून हैं इस मुहिम में उन्हें साथ जोड़ने के लिए... जब कोई मुहिम शुरू होती है तो इस से फ़र्क नहीं पड़ता कि शुरूआती दौर में उस के साथ 10 लोग जुड़े हों या बीस .. बस एक फ़िक्र होती है ...यह जुनून तो एक से दूसरे को पास हो कर ही रहता है। जब किसी भी बदलाव की बात होती है तो भीड़ साथ नहीं चलती, भीड़ वहां चलती है जहां ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगते हैं..उन्होंने कहा कि हम मीडिया वालों की गलतियों को सुधारने नहीं आए हैं.. मीडिया तो उन की कमज़ोरी है ..बहुत से नामचीन जर्नलिस्ट उन के स्टूडेंट्स रह चुके हैं..
डा साबरा ने कहा कि किसी ज़ुबान में दिलचस्पी होती नहीं है, पैदा की जाती है ..उन्होंने एक बात शेयर की - एक बार एक लड़के ने उनसे पूछा कि मैडम, उर्दू सीखने से हमें क्या कुछ फ़ायदा होगा......डिपार्टमैंट में रशियन, फ्रेंच, जर्मन पढ़ाई जा रही हैं..हम कौन सी सीखें .. जिस से कुछ फायदा हो ...। उन्होंने जवाब दिया कि तुम के.जी-नर्सरी से इंगलिश पढ़ रहे हो, फिर भी बहुत से लोग एक एप्लीकेशन तो लिख नहीं पाते .. फ़ायदा नुकसान न सोचिए ... अपने को सजाओ....अलग अलग भाषाएं सीखना भी अपने आप को सजाने जैसा ही है।
उन्होंने एक रूसी कहावत सुनाई - अगर सौ साल तक जियो तो सौ साल तक सीखते रहो।
हर चीज़ को ऐसे मत देखो ...चाबी लगाई ताला खुल गया और ख़ज़ाना मिल गया... अपने अंदर भी ख़ज़ाने पैदा करो, यही मेरा पैग़ाम है।
महान् रूसी लेखक गोर्की के बारे में बात चली ... जब उस ने एक आर्टीकल लिख कर एडीटर को भेजा तो उसने पूछा कि नाम क्या लिखूं...गोर्की ने कहा कि जो मैं लिखता हूं वह कड़वा होता है, जिन के बारे में लिखता हूं उन की ज़िंदगी कड़वी है, मेरी अपनी ज़िंदगी कड़वी रही है, इसलिए नाम की जगह गोर्की लिख दीजिए (रूसी भाषा में गोर्की का मतलब होता है कड़वा) ..
गोर्की ने अपने बेटे को जो ख़ुतूत लिखे ...प्रो. साबरा ने उन को याद करते हुए एक ख़त के कुछ अंश सुनाए...पहले रूसी भाषा में फिर हिंदोस्तानी में - "बेटे, तुम चले गये और फूलों के जो पेड़ तुम जो लगा कर गये हो, उन पर फूल आ चुके हैं...आज जब मैं उन की तरफ देखता हूं तो सोचता हूं कि अगर तुम ज़िंदगी में हर जगह, हर मुकाम पर अपने पीछे कुछ न कुछ अच्छा छोड़ के जाओ ...अच्छी बातें, अच्छे ख़्यालात तो तुम्हें लगेगा कि लोगों को तुम्हारी ज़रूरत है और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारी ज़िंदगी बहुत आसान है....याद रखो कुछ ले जाने से कुछ दे जाना हमेशा बेहतर है।"
प्रोग्राम की शुरूआत में म्यूज़िकल स्पिरिट लाने के लिए हरदिल अजीज़ शन्नै नक़वी साहब ने समां बांध दिया...
जनाब शन्नै नक़वी साहब की पुरज़ोर और पुरजोश आवाज़
श्री अनंत ने कहा कि नये मीडिया के इस दौर में आने वाले नये लोगों को लगता है कि कुछ ही महीनों में उन्हें पूरी दुनिया का ज्ञान हो चुका है - लेकिन ऐसा नहीं है, भाषा का ज्ञान और बिल्कुल शुद्ध भाषा का ज्ञान प्रभावशाली लिखने या बोलने के लिए निहायत ज़रूरी है। उन्होंने यह भी फ़रमाया कि तलफ़्फ़ुज़ को ठीक करने की मुहिम वे जारी रखेंगे .. और आने वाले समय में इलेक्ट्रोनिक मीडिया को भी इसमें शामिल करेंगे।
इस अवसर पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के महासचिव श्रीकांत भाटिया ने भी अपने विचार रखे - उन्होंने हिंदी-उर्दू-सिंधी की साझी विरासत की चर्चा की ..और सभी शिरका को याद दिलाया कि हम लोग दिन भर में कितने अल्फ़ाज़ तो उर्दू के ही बोलते हैं ... लेकिन अगर उन का तलफ़्फ़ुज़ भी ठीक हो जाए तो क्या बात है! उन्होंने यह भी कहा कि अब पी.सी.आई में हम लोग एक बोर्ड के ज़रिए रोज़ाना एक उर्दू लफ़्ज सीखेंगे .. सभी शोरका ने तालियां बजा कर इस पहल का स्वागत किया।
प्रेस क्लब के शहज़ाद भाई ने बताया कि कभी कभी जर्नलिस्ट पी.सी.आई के कांफ्रेंस-हाल में होने वाली प्रेस-कान्फ्रेंस में शिरकत नहीं करते ...लेकिन इस वर्कशाप की तैयारी करते वक्त उन्हें यह अहसास हो गया है कि ऐसी वर्कशाप के लिए कितनी मेहनत लगती है ..इसलिए अब वह भी हर प्रेस-कांफ्रेंस में ज़रूर शिरकत किया करेंगे..😃
तलहा सोसायटी की सरपरस्त कुलसुम तलहा ने फ़रमाया कि यह तो महज़ आग़ाज़ है ...हम ये जो तलफ़्फ़ुज़ का एक हरा-भरा पेड़ छोड़ कर जा रहे हैं, इस पेड़ पर उर्दू के फूल निकलें ...यह फलता-फूलता रहे।
मुस्कुराने की तमन्ना तो हमें भी है मगर
मुस्कुराते हुए हालात कहां मिलते हैं...
उन्होंने कहा कि ख़ुशग़वार हालात तो बनाने पड़ते हैं।
मो. कमर खां साहब ने उर्दू हुरूफ़ के बारे में अच्छे से बताया ... शोरका को एक उर्दू की किताब भी दी गई और कुछ अल्फ़ाज़ की लिस्ट भी जिस का इस्तेमाल बहुत आम है लेकिन तलफ़्फ़ुज़ में अकसर ग़लती हो जाती है । उन्होंने फरमाया आप उर्दू से किसी भी तरह से लुत्फ़अंदोज़ होना चाहें, उस की पहली सीढ़ी ये हुरूफ़ ही हैं। यह नाचीज़ भी क़मर खां साहब का एक अदना शागिर्द ही है ...
प्रो. साबरा काग़ज़ों पर कुछ बेहतरीन अशआर लिख कर लाईं थीं...शोरका ने उन्हें बारी बारी से पढ़ा और प्रोफैसर साहिबा ने उन का तलफ़्फ़ुज़ ठीक कराया... आप भी इन्हें पढ़िए ....
शाख़ फलदार हो तो झुक जाती है
उरूजे इल्म की पहचान इन्किसारी है
शगुफ़ता गुल का तबस्सुम तो सिर्फ़ दिलकश है
मगर कहां तेरे अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू की तरह
तुम्हारे घर में दरवाज़ा है लेकिन
तुम्हें ख़तरों का अंदाज़ा नहीं है
हमें ख़तरों का अंदाज़ा है लेकिन
हमारे घऱ में दरवाज़ा नहीं है
तेरे आने की जब ख़बर महके
तेरी ख़ुश्बू से सारा घर महके
शाम महके तेरे तसव्वुर से
शाम के बाद फिर सहर महके
याद आए तो दीद मुनव्वर हो
दीद हो जाए तो नज़र महके
बिछड़ के फिर मिलेंगे यकीन कितना था
बेशक ख़्वाब था लेकिन हसीन कितना था
मेरे ज़वाल से पहले वो मुझे छोड़ गया
हसीन तो था ही, ज़हीन कितना था !
जाते जाते प्रो साबरा ने सारे शोरका को एक बहुत बढ़िया सलाह भी दी .....
न पीर से पूछो न फ़कीर से पूछो
तुम अपने बारे में अपने ज़मीर से पूछो
इस पोस्ट को लिखने का मक़सद तलफ़्फ़ुज ग्रुप के मुक़द्दस काम को दर्ज करना है ...हिंदी हमने हाई-स्कूल तक पढ़ी है और उर्दू लिखना-पढ़ना अभी क़मर खां साहब से सीख रहे हैं ...इसलिए इस तरह की पोस्ट में कहीं भी ग़लती दिखे (बहुत सी होंगी - शायद अशआर में भी होंगी) तो ज़रूर बताएं (ब्लॉग पोस्ट के नीचे कमैंट्स मेंं भी आप बिंदास लिख सकते हैं) ...वैसे भी इस टीम में ऐसे ऐसे उर्दूदां जुड़े हुए हैं जिन के सामने मुंह खोलते हुए डर लगता है कि कहीं मेरा ख़राब तलफ़्फ़ुज़ उजागर न हो जाए....इसलिए मैं चुप ही रहना मुनासिब समझता हूं, ज़रूरत होने पर ही कुछ कहने की हिम्मत जुटा पाता हूं ...कहते भी तो हैं बंद है मुट्ठी तो लाख की, खुल गई तो फिर ख़ाक की !😂
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